वो हिलती हुई ट्रेन में अहसास हुआ की पीछे कुछ छुट सा गया था
दिए की लौ सी झिलमिल चलती ट्रेन ने कुछ याद दिलाया है
वो छुटते खेत
वो दौड़ते पेड़
जैसे माँ से जिद कर रहे हो हमें बाहर जाने दो न !
वो लाल सफ़ेद डिस्टेंपर से सजे घर
वो खुली छत, वो खुला आँगन
कहती है कहानी उस बिंदास अंदाज़ की
जो मेट्रो सिटी में कहाँ मिलती है
क्या अंदाज़ बदलने से कोई बिंदास जो जाता है?
वो एक अकेला सा घर उस खेत में
उसमें कुछ लोग रहते होंगे
ए काश वोह भरे हों यादॊ और बेबाक बातों से
वोह छोटा सा सरसों के खेत का टुकड़ा
किसी ने बड़े यतन से बचाया होगा
कंक्रीट जंगल के ठेकेदारों से
और वो आया एक छोटा सा स्टेशन
जी में अता था की अपनी मंजिल आ जाये जल्दी ही
पर जब यह छोटे छोटे सुन्दर पढ़ाव आते है
तो जी बदल जाता है
कि सफ़र यूहीं चलता रहे
ऐसा ही कुछ होता है जीवन में
मंजिल की चाह नहीं रह जाती
न ही उसकी याद आती है
जीने मरने की आरजून से परे
जब कोई ख़ुशी जैसा छोटा स्टेशन अता है
तो सफ़र भी अच्छा लगता है
एक ठहरा हुआ घर
एक ठहरा हुआ खेत
झिलमिल चलती ट्रेन सी ज़िन्दगी
में सभी चले जा रहे है!
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