खोल दो खिड़कियाँ को
बूंदों को अन्दर आने दो
पड़ने दो हथेलियों पर ऐसे
जैसे गरम रेत पर पानी का
mirage बन जाये !
तपती धरती सी मेरी रूह
को मिल गया सावन जैसे
आँखों में पानी ऐसे फ़ेला ऐसे
जैसे रंग फर्श पर बिखर गए हों !
जब उन् पोरों पर जाकर रुका पानी
तो उससे रॊक लेने को जी चाहा
क्योंकि पोरों से गालॊ तक की राह
पर लाख सवाल होते है
जिनका कोई जवाब नहीं होता
और न ही वो सवाल रुकते है
ज्यादा देर उस mirage की तरह
जो मेरी हथेलियों पर आकर बन गया था
समझा तो पता लगा
उस mirage को पार करते ही
सारे सवाल और जवाब भी लुप्त हो गए !
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